Monday 11 July 2011

तिबारी-डिंडाळी

पिछले ४ महिनो मा ब्यस्तथा कु कारण ब्लोग मा एक भी रचना पोस्ट नी करि सक्यो.. ४ महिना क बाद आज एक कविता पोस्ट करणु छौ आशा करदु आप सभी पढेदर दगडियो तै पंसद आली... 

तिबारी-डिडांळी अर  छ्जा-धुर्पळी।
गंज्याळी की गांज सी गुंजदी उर्ख्याळी॥

चुल्ल की मुछ्याळी औंछ पळ्यो की भदाळी।
चाय कि कितळी निस भत्ती की पिठळी॥

फ़ाणु पळ्यो झूळ्ळी झंगोरू तातू छ कंडाळी।
बनी - बनी क खाणु न भुरी छ भदाळी॥

गुर्याळ-बांज कुळैं-बुरांस झपलंगी बणी डाळी।
डांडी-कांठी गाड-गदनियो मा छ्यी हरियाळी॥

हाथ धगुली नाक नथुली गौळ की खग्वाळी।
अंगडी फ़ुतकी सजदी कन घागरी फ़ुर्क्याळी॥

ढोल दमो बजद जब डौरु अर  थकली।
देवी दिवतो कि तब जात्रा जाली॥

बोण की घसेरी लेन्दी घास की गडोळी।
ग्वेरू पन्डेरियो कि कन जांदी बणी टोली॥

भला लोग भलु समाज मनखी बडु मयाळी।
देवभूमी क छवा हम कुमयां अर  गढवाळी॥

सर्वाधिकार सुरक्षित @ विनोद जेठुडी, 2010
7  जुलाई 2011 @ 04:26 PM

3 comments:

  1. एक अच्छी रचना विनोद जी, आभार!
    एक बात मैं अवश्य कहूँगा कि गढ़वाली में 'और' नहीं 'अर' का प्रयोग होता है(जैसे कि दाल अर भात आदि आदि ...), जबकि बोलचाल में लोग 'और' के स्थान पर 'हौर' प्रयोग करते हैं(हौर क्या हूणू आदि आदि..... ).
    बहरहाल.अन्यथा न लें.

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  2. तहदिल से धन्यबाद रावत जी आपकु.. मै तै खुशी होली अगर आप अगने भी मेरी गलतियो तै ईनी बतान्दी रैल्या.. हां ठिक बोली आपन गढवाळी मा ता अर होन्दु.. अभी ये शब्द तै बदलदु छौ..

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  3. भौत आछु लेखी आप न विनोद भाई जी, मेरी भी इनी एक कविता लेखी छ, आजका दौर माँ सब कुछ बिखरी गी, बस पहाड़ त याखुली याखुली खुदेंडून च
    सुबेरकी की च्खाल पखाल,
    जाणी कख ख्खैगी,
    उजद्गिन उर्ख्याली अब,
    गांजली कख रेगी,

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